Thursday, January 28, 2010

ठिठुरता हुआ गणतंत्र - हरिशंकर परसाई

चार बार मैं गणतंत्र दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पांचवी बार साहस नहीं। आख़िर यह क्या बात है की हर बार जब मैं गणतंत्र समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। २६ जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूंदाबांदी होती है और सूर्य छुप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पाउंड, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं।
   इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं की हर गणतंत्र दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरन वाला होता है।
   आख़िर बात क्या है ? रहस्य क्या है ?
   जब कांग्रेस नहीं टूटी थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है की हर गणतंत्र दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते ? उन्होंने कहा, "जरा धीरज रखिये. हम कोशिश में लगे हैं कि सूर्य बाहर आ जाये. पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं है. वक़्त लगेगा. हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिये!"
   दिए. सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका कोई छोटा कोना निकलता तो दिखना चाहिए. सूर्य कोई बच्चा तो नहीं जो अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप एक दिन ऑपरेशन कर के निकाल देंगे.
   इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इन्दिकेती कांग्रेसी से पूछा. उसने कहा, " हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने कि कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडिकेटी वाले अडंगा डाल देते थे. अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकल कर बताएँगे ."
   एक सिंडिकेटी पास खड़ा सुन रहा था. वह बोल पड़ा, "यह लेडी(प्रधानमन्त्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गयी है. वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो. उन्हें उम्मीद है, बादलों के पीछे से उनका प्यारा 'लाल सूरज' निकलेगा. हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता?"
   मैं संसोपाई भाई से पूछता हूँ. वह कहता है, "सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है. उसने डॉक्टर लोहिया के कहने से हमारा पार्टी फॉर्म भर दिया था. कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है ! किसी गैर कांग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे."
   जनसंघी भाई से भी मैंने पूछा. उसने साफ़ कहा," सूर्य सेकुलर होता तो इस सरकार कि परेड में निकल आता. इस सरकार से आशा मत करो कि वह भगवान् अंशुमाली को निकाल सकेगी. हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा."
   साम्यवादी ने मुझसे साफ़ कहा, "यह सब सी.आइ.ए. का षड़यंत्र है. सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं. "
   स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा, " रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा! "
   प्रसोपा के भाई ने अनमने ढंग से कहा, "सवाल पेचीदा है. नेशनल कौंसिल कि अगली बैठक में इसका फैसला होगा. तब बताऊंगा."
   राजा जी से मैं मिल न सका. मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है.
   स्वतंत्रता दिवस भी तो भरी बरसात में होता है. अंग्रेज़ बहुत चालाक है. भरी बरसात में स्वतंत्र कर के चले गए. उस कपटी प्रेमी कि तरह भागे जो प्रेमिका का छाता भी ले जाये. वह बेचारी भीगती बस स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी कि नहीं छाता चोर की याद आती है.
  स्वतंत्रता दिवस भीगता है और गणतंत्र दिवस ठिठुरता है.
   मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ. प्रधानमत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाडी में निकलती हैं. रेडियो टिप्पणीकार कहता है, "घोर करतल-ध्वनि हो रही है." मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है. हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं. बाहर निकालने को जी नहीं होता. हाथ अकड़ जायेंगे.
   लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रही हैं. मैदान में ज़मीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है. लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है. गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलती है, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपडा नहीं है.
   पर कुछ लोग कहते हैं, "गरीबी मिटनी चाहिए." तभी दूसरे कहते हैं, "ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं."
   गणतंत्र समारोह में हर राज्य की झांकी निकलती है. ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं. 'सत्यमेव जयते' हमारा मोत्तो है मगर झांकियां झूठ बोलती हैं. उनमें विकास कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं. असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ. मेरे मध्य प्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नज़दीक पहुँचने की कोशिश की थी. झांकी में अकाल-राहत कार्य बतलाये गए थे. पर सत्य अधूरा रह गया था. मध्य प्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था. मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झांकी में झूठे मस्टर रोल  भरते दिखता, चुकारा करने वाले का अंगूठा हजारों मूर्खों के आगे लगवाता, नेता, अफसर, ठेकेदार के बीच लेन देन का दृश्य दिखता.
   जो हाल झांकियों का, वही घोषणाओं का. हर साल घोषणा की जाती है की समाजवाद आ रहा है, पर अभी तक नहीं आया. कहाँ अटक गया ? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा करते हैं, लेकिन वह आ नहीं रहा.
   मैं एक सपना देखता हूँ. समाजवाद आ गया है और बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है. बस्ती के लोग आरती सजा कर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं, पर टीले को घेरे खड़े हैं कई तरह के समाजवादी. उनमें से हरेक लोगों से कह कर आया है की समाजवाद को हाथ पकड़ कर में ही लाऊंगा.
   समाजवाद टीले से चिल्लाता है, "मुझे बस्ती में ले चलो."
   मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं, "पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़ कर ले जाएगा !"
   समाजवाद के घेराबंदी कर रखी है. संसोपा-प्रसोपा वाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसी वाले साम्यवादी हैं, दोनों तरह के कांग्रेसी हैं, सोशलिस्ट यूनिटी सेन्टर वाले हैं. क्रन्तिकारी समाजवादी हैं. हरेक समाजवाद का हाथ पकड़ कर उसे बस्ती में ले जा कर लोगों से कहना चाहता है, "लो, में समाजवाद ले आया."
   समाजवाद परेशान है. उधर जनता भी परेशान है. समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है. समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं. "खबरदार, उधर से मत जाना !" एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा दूसरा हाथ पकड़ कर उसे खींचता है. तब बाकी समाजवादी छीना झपटी कर के हाथ छुड़ा देते हैं. लहू लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है.
 
   इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है. लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक कि स्वतंत्रता छीन रहे हैं. सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं. सहकारिता तो एक स्पिरिट है. सब मिल कर सहकारिता पूर्वक खाने लगते हैं और आन्दोलन को नष्ट कर देते हैं. समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं.
   यों प्रधानमन्त्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है.
   मैं एक कल्पना कर रहा हूँ.
   दिल्ली में फरमान जारी हो जायेगा : "समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है. उसे सब जगह पहुँचाया जाए. उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए."
   एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा, "लो, ये एक और वी. आई. पी. आ रहे हैं. अब इनका इंतज़ाम करो. नाक में दम है."
   कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा. कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ.तहसीलदार को.
   पुलिस दफ्तरों में फरमान पहुंचेगे, "समाजवाद कि सुरक्षा कि तैयारी करो."
   दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे, "काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज़ आया था न! ज़रा निकालो !"
   तिवारी बाबू कागज़ निकाल कर देंगे. बड़े बाबू फिर से कहेंगे, "अरे, वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया. कोई लेने नहीं गया स्टेशन. तिवारी बाबू, तुम कागज़ दबा कर रख लेते हो. बड़ी खराब आदत है तुम्हारी."
   तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे,"सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता ? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतज़ाम नहीं कर सकेंगे. दशहरा आ रहा है. दंगे के आसार हैं. पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है."
   मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा, "हम समाजवाद कि सुरक्षा का इंतज़ाम करने में असमर्थ हैं. उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए."
   जिस शासन व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज़ दब जाएँ और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ. मुझे ख़ास एतराज़ भी नहीं हैं. जनता के द्वारा न आ कर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक एतिहासिक घटना आ जायेगी.