(यह लघु कथा हरिशंकर परसाई की सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य रचनाओं में से उद्धृत की गयी हैं. मैं कुछ समय से यह बात कहना चाहता था पर संयोग कि यह कहानी मिल गई और मेरा काम आसान हो गया. परसाई जी कि कहानी आज भी उतनी ही सच है, जितनी ३०-४० वर्ष पहले.)
यह कहानी स्टीन बेक के लघु उपन्यास 'Of Man and Mouse' से अलग है.
चाहता तो लेख का शीर्षक 'मैं और चूहा' रख सकता था. पर मेरा अहंकार उस चूहे ने नीचा कर दिया है. जो मैं नहीं कर सकता, वह यह मेरे घर का चूहा कर लेता है. जो इस देश का सामान्य आदमी नहीं कर पाता, वह इस चूहे ने मेरे साथ कर के बता दिया.
इस घर में एक मोटा चूहा है. जब छोटे भाई कि पत्नी थी, तब घर में खाना बनता था. इस बीच पारिवारिक दुर्घटनाओं - बहनोई कि मृत्यु आदि - के कारण हम लोग बाहर रहे.
इस चूहे ने अपना यह अधिकार मान लिया था कि मुझे खाने को इसी घर में मिलेगा. ऐसा अधिकार आदमी भी अभी तक नहीं मान पाया, चूहे ने मान लिया है.
लगभग पैंतालिस दिन घर बंद रहा. मैं जब अकेला लौटा, और घर खोला, तो देखा कि चूहे ने काफी 'Crockery' फर्श पर गिरा कर फोड़ डाली है. वह खाने कि तलाश में भड़भडाता होगा. क्रोकरी और डब्बों में खाना तलाशता होगा. उसे खाना नहीं मिला होगा, तो वह पड़ोस में कहीं कुछ खा लेता होगा और जीवित रहता होगा. पर घर उसने नहीं छोड़ा. उसने इसी घर को अपना घर मान लिया था.
जब मैं घर में घुसा, बिजली जलाई, तो मैंने देखा कि वह ख़ुशी से चहकता हुआ यहाँ से वहां दौड़ रहा है. वह शायद समझ गया कि अब इस घर में खाना बनेगा, डब्बे खुलेंगे और उसकी खुराक उसे मिलेगी.
दिन भर वह आनंद से सारे घर में घूमता रहा. मैं देख रहा था. उसके उल्लास से मुझे अच्छा ही लगा.
पर घर में खाना बनना शुरू नहीं हुआ. अकेला था. बहन के यहाँ जो पास में ही रहती है, दोपहर को भोजन कर लेता. रात को देर से खाना खाता हूँ, सो बहन डब्बा भेज देती रही. खा कर में डब्बा बंद कर के रख देता. चूहाराम निराश हो रहे थे. सोचते होंगे, यह कैसा घर है. आदमी आ गया है. रौशनी भी है. पर खाना नहीं बनता. खाना बनता तो कुछ बिखरे दाने या रोटी के टुकड़े उन्हें मिल जाते.
अब मुझे एक नया अनुभव हुआ. रात को चूहा बार बार आता और सिर की तरफ मच्छरदानी पर चढ़ कर कुलबुलाता. रात में कई बार मेरी नींद टूटती. मैं उसे भगाता. पर थोड़ी देर बाद वह फिर आ जाता और मेरे सर के पास हलचल करने लगता.
वह भूखा था . मगर उसे सिर और पाँव कि समझ कैसे आई? वह मेरे पांवों कि तरफ गड़बड़ नहीं करता था. सीधे सिर की तरफ आता और हलचल करने लगता. एक दिन वह मच्छरदानी में घुस गया.
मैं बड़ा परेशान. क्या करूं? इसे मारूं और यह किसी अलमारी के नीचे मर गया, तो सड़ेगा और सारा घर दुर्गन्ध से भर जाएगा. फिर भारी अलमारी हटा कर इसे निकालना पड़ेगा.
चूहा दिन भर भड़भडाता और रात को मुझे तंग करता रहा. मुझे नींद आती, मगर चूहाराम फिर मेरे सिर के पास भड़भड़ाने लगते.
आखिर एक दिन मुझे समझ में आया कि चूहे को खाना चाहिए. उसने इस घर को अपना घर मान लिया है. वह चूहे के अधिकारों के प्रति सचेत है. वह रात को मेरे सिरहाने आ कर शायद यह कहता है, 'क्यों बे, तू आ गया है. भर पेट खा रहा है. मगर में भूखा मर रहा हूँ. मैं इस घर का सदस्य हूँ. मेरा भी हक है. मैं तेरी नींद हराम कर दूंगा.'
तब मैंने उसकी मांग पूरी करने कि तरकीब निकाली.
रात को मैंने भोजन का डब्बा खोला, तो पापड के कुछ टुकड़े यहाँ वहां डाल दिए. चूहा कहीं से निकला और एक टुकड़ा उठा कर अलमारी के नीचे बैठ कर खाने लगा. भोजन पूरा करने के बाद मैंने रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखरा दिए. सुबह देखा कि वह सब खा गया है.
एक दिन बहन ने चावल के पापड भेजे. मैंने तीन चार टुकड़े फर्श पर डाल दिए. चूहा आया, सूंघा और लौट गया. उसे चावल-पापड पसंद नहीं. मैं चूहे कि पसंद से चमत्कृत रह गया. मैंने रोटी के कुछ टुकड़े डाल दिए. वह एक के बाद एक टुकड़ा ले कर जाने लगा.
अब यह रोजमर्रा का काम हो गया. मैं डब्बा खोलता, तो चूहा निकल कर देखने लगता. मैं एक-दो टुकड़े डाल देता. वह उठा कर ले जाता. पर इतने से उसकी भूख शांत नहीं होती थी. मैं भोजन कर के रोटी के टुकड़े फर्श पर डाल देता. वह रात को उन्हें खा लेता और सो जाता.
इधर मैं भी चैन कि नींद सोता. चूहा मेरे सिर के पास गड़बड़ नहीं करता.
फिर वह कहीं से अपने एक भाई को ले आया. कहा होगा, 'चल रे मेरे साथ उस घर में. मैंने उस रोटी वाले को तंग कर के, डरा के, खाना निकलवा लिया है. चल, दोनों खायेंगे. उसका बाप हमें खाने को देगा, वरना हम उसकी नींद हराम कर देंगे. हमारा हक है.'
अब दोनों चूहाराम मज़े में खा रहे हैं.
मगर मैं सोचता हूँ, 'आदमी क्या चूहे से भी बदतर हो गया है? चूहा तो अपनी रोटी के हक के लिए मेरे सिर पर चढ़ जाता है. मेरी नींद हराम कर देता है !
इस देश का आदमी कब चूहे कि तरह करेगा ?'
अच्छी रचना।
ReplyDeletewaah yaar ranjeet bhai...parsai ji ki rachna yahan daal kar hum jaiso ka bhala kar rahey ho..yah shubh-karya kartey rahiye :-)
ReplyDeleteKya apko iske liye koi permission ya royalty deni padi? Me ek student hu aur parsai ji ki issi kahani par adharit ek natak krna chahta hu lekin mujhe koi nhi milta jiss se me permission ke regarding baat kr skun please mujhe btayie ki kya permission leni hoti h?
ReplyDeleteJi nahin, maine koi permission nahin li. Mera khayal hai, agar aap iss ekoi kamayi nahi karna chah rahe to koi samasya nahi hai
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